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किफायत : पैसे बचाने का बुद्धिमानीपूर्वक सर्वोत्तम इस्तेमाल या कंजूसी

कल एक लेख पढ़ा था अखबार मे लेखक अपना जन्मदिन की घटना बता रहा है --- शनिवार को जन्मदिन मनाने के लिए परिवार के साथ शॉपिंग तय थी। हमने पास के मॉल में अक्षरश: छह घंटे शॉपिंग करते हुए बिताए। इन छह घंटों में मेरे ध्यान में बात आई कि खरीदी को लेकर मेरे और मेरी बेटी की राय में बहुत बड़ा फर्क है। यह पुरानी और नई पीढ़ी की सोच का फर्क था। सवाल पैसे का नहीं था, सवाल यह था कि कितना और कहां खर्च करना है। मेरी बेटी और मेरे बीच मेरे लिए जूते खरीदने को लेकर बहस हो गई। इन्हें मैं कभी नहीं खरीदता। उसने तो तीन मिनट में फैसला कर लिया। उसने एक पल भी सोचा नहीं और खुद का डेबिट कार्ड स्वाइप करते हुए उसके माथे पर शिकन तक नहीं आई। कई और चीजों की खरीददारी के साथ हमारे हाथ भारी हो गए, डिनर भी भारी था, लेकिन मेरा पर्स हलका नहीं हुआ, क्योंकि मुझे कहीं भी खर्च नहीं करने दिया गया। मेरा जन्म दिन था। फिर बर्थडे बॉय को कैसे खर्च करने दिया जाता! मेरी मध्यवर्गीय बुद्धिमत्ता ने मुझे कुल खर्च का हिसाब लगाने पर मजबूर किया और मैंने पाया कि मेरी युवा बेटी ने उन छह घंटों में उससे कुछ ज्यादा ही खर्च कर दिया, जो वह पूरे महीने में अर्जित करती है। 
मैं उस जमाने का व्यक्ति हूं, जब अपने गुल्लक के पैसे गिनने के बाद ही शॉपिंग की जाती थी और यह दीपावली या स्कूल शुरू होने के वक्त की जाती थी। जाहिर है मामला जितनी चादर, उतने पैर फैलाने का था। मैं कम से कम तीन गुल्लक के साथ बड़ा हुआ और उन्हें कम से कम दो साल का वक्त वांछित स्तर तक पहुंचने में लगता था, जब उन्हें तोड़कर पैसे खर्च करने का निर्णय लिया जाता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि स्कूल के 10 वर्षों में मेरे पास 15 से ज्यादा गुल्लक रहे थे। मेरी इस बचत से मैंने उस पूरी स्कूली जिंदगी में सबसे महंगी कोई चीज खरीदी थी तो वह थी 110 रुपए की एटलस साइकिल। मेरे माता-पिता का नियम यह था कि यदि साइकिल में नए पहिए लगाने हैं, कपड़े या धूप के चश्मे खरीदने हैं तो बच कीजिए। जब मैंने अपनी पहली घड़ी खरीदी तो मेरे पिता ने अपने सेना के मित्र से संपर्क कर सेना की कैंटीन से एचएमटी की घड़ी बाजार कीमत से 20 रुपए सस्ते में दिलाई। मेरे पास अब भी वह घड़ी है। यानी जगह किफायत का ध्यान रखा जाता था। यह कंजूसी नहीं थी बल्कि पैसे का बुद्धिमत्तापूर्ण सदुपयोग था। 
चूंकि हमारी नई पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर और प्लास्टिक मनी के साथ बढ़ रही है, इसलिए उसे लगता है कि गुल्लक जैसी चीजें उनकी गरिमा के अनुरूप नहीं है। पालक के रूप में मैं अपनी बच्ची को जीवन के झटकों से बचाने का दोषी मानता हूं। मेरी तरह ज्यादातर पालक यही करते हैं, जब तक कि बच्चे 20 के दशक के उत्तरार्द्ध में पहुंच जाएं। उच्च शिक्षा के अलावा उदार पालकों से बच्चों को मिलने वाले पैकेज में मुफ्त भोजन, लॉन्ड्री, ट्रांसपोर्ट और विवाह भी शामिल होता है। वे भावनात्मक रूप से गलत नहीं होते। सोच यह होती है कि हम जिससे गुजरे, उससे हमारे बच्चों को गुजरना पड़े, लेकिन भावुकता से जिंदगी नहीं चलती। 
मॉल में शॉपिंग करते वक्त बेटी की कुछ सहेलियों से भी मेरी मुलाकात हुई और मुझे पता चला कि वे तो हर सप्ताहांत में वहां शॉपिंग करती हैं। मुझे अहसास हुआ कि नई पीढ़ी को बचत और खर्च में संबंध जोड़ने की कोई सोच ही नहीं है। वे आपस में जो भी बातें कर रही थीं, उसका हर शब्द परोक्ष रूप से यह दर्शाता था कि किफायती होने का मतलब है, कंजूस होना। किफायत इस शब्द के लिए उनकी डिक्शनरी में बहुत ही नकरात्मक छटा थी, जबकि किफायत का संबंध पैसे बचाने की बजाय पैसे का चतुराईपूर्वक, बुद्धिमानीपूर्वक सर्वोत्तम इस्तेमाल करने से है। 
 कुछ दिनों पहले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुरामन राजन ने स्कूल पाठ्यक्रम में वित्तीय साक्षरता को शामिल करे का प्रस्ताव रखा था। किंतु पालकों के रूप में हम एक चीज कर सकते हैं- फिर से गुल्लक संस्कृति को स्थान दें ताकि नई पीढ़ी वित्तीय स्तर पर साक्षर हो सके। 
बचत को खर्च से जोड़कर और नई पीढ़ी को वित्तीय मामलों में साक्षर बनाकर शहरी गरीबी नामक नई व्याधि से बचा सकते हैं, जो सारे शहरी इलाकों में फैल रही है। 
अपने नयी पीढ़ी को केवल पैसे ही नहीं -- पानी , खाना, कपडे , पर्यावरण इत्यादी का किफायती से इस्तमाल बताना हमारी जिम्मेवारी है |  वर्ना नयी पीढ़ी आगे चलकर wastege का उतरदायी हमें ही ठराएगी | 
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