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व्यापक बदलाव के सबक देती महामारी

कोविड-19 वैक्सीन का इंतजार है। लेकिन महामारी से निपटने का जिम्मा हमें वैक्सीन पर नहीं छोड़ना चाहिए। हमें अपने रवैयों, तौर-तरीकों को भी बदलना होगा।
कब और कैसे हम इस महामारी की चपेट से, उसकी घातक लपेट से बाहर निकलेंगे, कोई नहीं कह सकता। पूरे विश्वास से तो नहीं ही। ना वैज्ञानिक, ना स्वास्थ्य विशेषज्ञ, ना समाज-शास्त्री और ना ही परिपक्व अनुभवी बुजुर्ग। क्या करें? अजनबी जो है, यह चुनौती। बिल्कुल अनजानी, पहले ना कभी देखी, ना सुनी, ना सोची।
वैसे हमें इसके पूर्व-संकेत मिल चुके थे- वैज्ञानिकों से, विशेषज्ञों से। उनकी चेतावनियां आ चुकी थीं, यह बतलाते हुए कि जिस तरह विश्व में 'विकसित, प्रभावशाली, संपन्न् मनुष्य अपने खान-पान या यूं कहिए कि अपने अनंत भोग के लिए भूमि के पदार्थों का, उनकी खानों का, जलाशयों का, उसके पशुओं का, शोषण कर रहा है, वह विधि, वह तरीका खतरे से भरा है। लेकिन इस चेतावनी को कितनों ने सुना? एक खतरा, उन्होंने कहा, पर्यावरण पर है, मौसम पर। भूमि को बुखार चढ़ा है। वह तप गई है। और यदि हम उसे उसके ज्वर से राहत न देंगे तो वह ज्वर हमें जलाकर राख छोड़ेगा। और दूसरा भयंकर खतरा, विशेषज्ञों ने कहा है 'जूनोटिक पेंडेमिक्स का, यानी जानवर-लोक से उत्पन्न् खतरा। उन्होंने कहा कि यदि हम असुरक्षित, अस्वच्छ मांस खाते जाएं तो हमें वही मांस खा डालेगा।
स्वाइन फ्लू, एवियन फ्लू, सार्स, मर्स, इबोला, निपाह... ये सब हमारे लालच, मुनाफे की लालच, भोग की लालच और साथ-साथ प्रकृति के नियमों के बेपरवाह, लापरवाह उल्लंघन की वजह से उत्पन्न् हुए हैं।
विकसित विदेश में 'बीफ फार्म के नाम से खेत हैं, जिनमें 'मैड काउ डिजीज शुरू हुई और उसको रोकने हजारों की तादाद में पशुओं को मारा और दफनाया गया। और जो मुल्क विकसित बनना चाह रहे हैं और आज विकासशील कहलाए जाते हैं, उनमें भी, जैसे-जैसे लोगों की आय बढ़ती हैं, खर्च करने की ताकत बढ़ती है, वैसे-वैसे उनके सामने खान-पान का बाजार वह सारे पदार्थ उसी तरह पेश करता है जिससे उनकी नई भूख और बढ़े, और बढ़े, और फिर उसकी पूर्ति हो, और पूर्ति हो...असंयमित, अनियंत्रित... जूनोटिक खतरे से भरपूर।
कोविड-19 की शुरुआत वुहान के बाजार और उससे जुड़े हुए पा-खानों ही से हुई है, ऐसा माना जाता है। होगा सच इसी सोच में, लेकिन इस सच के पीछे यह सच भी हम जान लें- हर खान-पान के बाजार में आज वुहान निहित है। यानी लापरवाही, गंदगी, गिलाजत, गलौच। छोटे बाजारों में यह दिख जाती है, बड़ों में छिपी रहती है। सड़कों पर बने हुए ढाबों में दिख जाती है, नक्षत्र होटलों में छिपी रहती है।
और जहां अस्वच्छ पा-खाने हैं, बस अड्डों में, रेल स्टेशनों में, सड़कों में, वहां यही खतरा है, अदृश्य और निर्मम। इसका मतलब है कि हम सबों में जो कि इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं और मार्केट के गुलाम बने हुए हैं, हम सब में वुहान छिपा है। हम कोविड-19 के शिकार हों या ना हों, हम अगर अपने भीतर छिपे वुहान को अनदेखा कर रहे हैं तो हम उस ही वायरस के सहयोगी हैं।
स्वच्छ भारत का अभियान, इस दृष्टि से देखें, तो एक अद्भुत और महत्वपूर्ण, दूर की सोच वाला उद्यम है। लेकिन क्या हम लोगों ने उस कार्यक्रम को अपने दिलों में अपनाया है ? क्या हमने खुद के तरीकों को स्वच्छ बनाया है ? थूकना हम भारतीय  अपना 'आजन्म अधिकार मानते हैं। और पेशाब..। मैं वाक्य पूरा नहीं करूंगा।
हमें आज घरों में (जिनके घर हैं) सिमटे हुए रहना है। यह आवश्यक है। लेकिन जब हमें बाहर निकलने की छूट मिलेगी, जब हम बाहर निकलेंगे, तब क्या हम वही के वही, वैसे के वैसे ही बने हुए निकलेंगे, जैसे कि आज घरों के अंदर हैं? अगर हां तो समझिए कि अगली बार..। मैं यह वाक्य भी पूरा नहीं करूंगा।
कोविड-19 वैक्सीन का इंतजार है। होना चाहिए। उसकी तैयारी में लगे हुए लोगों की सफलता के लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिए। लेकिन इस महामारी से निपटने का जिम्मा हमें वैक्सीन पर नहीं छोड़ना चाहिए। हमें उस वैक्सीन के पीछे खुद को भी एक वैक्सीन बनाना होगा, जो कि दवाई वैक्सीन को सशक्त बनाएगा, ठीक वैसे जैसे कि सेना के जवान के पीछे राष्ट्र-बल उसको ताकतवर, निडर बनाता है।
हमारे समाज के नव-उदारवादी 'मुक्त मार्केट का अंतस स्वार्थमय है। वही स्वार्थ हमें घोट रहा है। हम सोच रहे हैं कि हम बाजार में बाजार से प्राप्त वस्तुओं का भोग कर रहे हैं, उसका पान कर रहे हैं, उसको खा रहे हैं। किंतु बात बिल्कुल विपरीत है। आदरणीय चिंतक, लेखक, कवि रामकुमार 'कृषक ने हाल ही में मुझे यह हकीकत फोन पर सुनाई- 'हम बाजार को नहीं, बाजार हमें खा रहा है। इससे और सच्ची बात आज नहीं कही जा सकती। नफा नशा है। नफा बाजार में वही करता है, जो नशा इंसान में करता है। उसको पागल बना देता है। हम नफे के पागलपन से बचें! बाजार के गुलाम ना बनें! यानी, अपने उपभोक्ता की भूमिका पर कुछ संयम लाएं। सादगी की कोई परिभाषा नहीं। लेकिन इन लॉकडाउन के दिनों ने हमें दिखाया है कि हम घरों में रहने वाले सौभाग्यवान कितनी चीजों, सामग्रियों और सुविधाओं के बिना आराम से रह सकते हैं। इस ही लॉकडाउन के समय हमने यह भी देखा है कि जरूरतमंद लोगों की मदद कितनी बड़ी तादाद में हम जैसे 'सामान्य लोगों ने करी है। प्रवासी मजदूर, बे-सहाय और रोजगार से पिछड़े हुए लोगों को समाज ने सहायता दोनों हाथों से दी है।
इसमें हमने बाजार से खुद को मुक्त कर दिखाया है। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिला छोड़ा था। 2020 में हमें स्वार्थ को, मार्केट की गुलामी को 'भारत छोड़ो कहना है। महामारी और लॉकडाउन के बाद यदि हम यही विवेक दिखाएंगे तो धन्य बनेंगे और एक नए भारत का निर्माण करेंगे। एक ऐसे भारत का:-

1- जिसमें हमने प्रकृति से सबक सीखा है प्रकृति की मर्यादा, उसकी पवित्रता, उसकी अखंडता को बचाए रखना।

2- जिसमें हमने संकट से सबक सीखा है अपने आप को सिमटाकर, अपने घरों में बच्चों और बुजुर्गों के अमूल्य सहयोग के साथ सादगी लाना।

3- जिसमें हमने अपने शरीरों की नश्वरता की गंभीर पहचान पाकर सीखा है कि अस्पताल, डॉक्टर, नर्स, लेबोरेटरी सहायक, वहां के सफाई कर्मचारी, दवाखाने हमारे लिए कितने मूल्यवान हैं। वे देवता रूप हैं।

4- जिसमें हमने यह बुनियादी सत्य समझा कि महामारी इतिहास में या मेडिकल पुस्तकों में नहीं, आज हमारे ही बीच रहती है, हमसे ही बनाई गई है, और अमीर-गरीब, हिंदू-मुस्लिम को नहीं पहचानती। वह हमें 'समता का बोध दे गई है।

5- जिसमें हम समझ गए हैं कि हर दिन अनोखा होता है, उसका सदुपयोग करना चाहिए, खुद की और खुद से कम भाग्यवानों की सुरक्षा और सु-हाली के लिए और साथ ही करतार को यह कहते हुए कि स्वार्थमय बन आए थे जरूर, लेकिन महादेवी की कसम, अब ना होंगे।


गोपाल कृष्ण गांधी

(लेखक पूर्व राजनयिक-राज्यपाल हैं)

आलेख - नई दुनिया 

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